Tuesday, January 13, 2009

सत्ताधारी भगवान

कितनी कितनी बार,

झूठ बोल गया भगवान!

और निर्गुण नहीं रहा।

तो फिर हक है मुझे भी,

कि उसे धमकाऊॅ,

और करूं थोड़ा ब्लैकमेल भी!

शायद डर जाए.....!

पर वह चतुर सयाना,

फिर भी कभी न कभी

अपनी सत्ता का करेगा ही दुरपयोग।
......

अपने ‘अन्याय’ को ‘मेरी करनी ’ कह कर

चाल चल ही जाएगा....।

....एलोपैथी के डॉक्टर की तरह....

रोग का कारण निवारण न कह पाने पर,

उसे अनुवंशिक कह देने की सी चाल।

(भगवान न हुआ समाज हो गया)
.......

मैं सड़क जना,

कितने भी लगा लूं आरोप;

ऊॅंचे मन्दिर में बैठा वह

ले ही लेगा मुझ से

मेरी इस करनी का बदला...।
.....

निर्गुण सा हुआ जाता

सब जानता भी, पूरे मनोयोग से,

करता ही जा रहा हूँ,

अपराध पर अपराध।

Thursday, November 27, 2008

दो लड़कियां




चीड़ के पेड़ से पीठ टिकाए,

कॉलेज् जाने वाली लड़की,

फुट पाथ पर बैठी,

मैंहदी लगाने वाली,

राजस्थानी बालिका वधू की,

रंग बिरंगी पोशाक को

टकटकी लगाए देख रही है।

कॉलेज जाने वाली लड़की की

दाँईं बाज़ू में सिमटी किताबें.......

हथेली पर,

अभी-अभी लगवाई,

गीली- हरी मैंहदी..... दोनो हाथों में, दो-दो सुनहरे सपने।


मेंहदी लगाने वाली लड़की,

कॉलेज जाने वाली लड़की,

कॉलेज जाने वाली लड़की की,

हल्के रंग की पोशाक

और बाहों में सिमटी किताबों को,

रह-रह कर, चाव से,

नज़र भर देख लेती.......

दोनों आंखों में भर कर

बड़े सपने.......

तब तक, जब तक,एक भारी हाथ से पड़ा घौल,

उसे, एक दूसरे हाथ पर मैंहंदी लगाने की

याद नहीं दिलाता।

Saturday, November 22, 2008

कविता

यूं ही नहीं मिल जाते हैं स्वप्न...........

कविता
ज़िन्दगी यूं ही 

तोहफों से नहीं नवाज़ेगी,

हर मोड़

यूं ही नहीं मिल जाएंगे स्वप्न।

मायूसियों की चादर ओढ़,

ख़ुद पर दया करते,

क्या फेर पाओगे किस्मत का पहिया?

बेचारगी की चोगे में,

मिलेगा आसमान?

उठ!

घुटनों पर सिर रखने वाले,

और जी डाल संपूर्ण जीवन,

कण्टकों से भरा संपूर्ण जीवन।

Thursday, November 20, 2008

कविता......

तुम्हीं हार रहे हो.....



तुम्ही हार रहे हो।

मैं तो अभी भी हूं सशक्त।

विनम्र प्रार्थना को,

भीख बना देने की नीचता,

तुम्हीं ने की-

मैं तो अब भी,

तुम्हारे तिरस्कार को,

माफ कर पाने में हूं सक्षम।

आज भी कह रहा हूं तुम्हें,

सर्वसक्षम सर्वशक्तिमान

और, तुम्हीं झुठला रहे हो,

अपना ईश्वर होना।

मैने तब भी इंसान होकर लगाई थी गुहार,

और अब भी

इंसान होकर

स्वीकार कर ली है हार।

Wednesday, November 19, 2008

छिपकलियां


सफेद धुली दीवार पर

बैठी है छिपकली

घात लगाए

और

सफेद धुली पोशाकों में भी

कुछ छिपकलियां

घात लगाए,

मौकों की तालाश में......

.........सैंकड़ों पतंगे

हर दिन होते शहीद

शहीद हो जाती हैं

खुद भी ये छिपकलियां

क्योंकि

सफेद धुली पोशाकों में

घात लगाती

ये सिर्फ मौके तालाश करती हैं

पतंगों और छिपकलियों में

भेद नहीं रखती............

और

सफेद धुली दीवार पर बैठी

छिपकली से

अलग हो जाती है।